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अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलप मापनो -
परिणम ते ॥ ५० ॥ एषामेव मणाउसो ! जो अम्हे जिग्गयो । जिग्गीवा जवी पंचमुक मगुणेसु नो सज्जति नो रज्जति सेणं इहभवे चेव बहृणं समण बहणं समणीण बहूर्ण साक्याणं यहूणं साधियाणं अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छति जाव वीतीबतिस्मति जहाते पुरिमा ॥ ११ ॥ तत्थणं अपेगतिया पुरिसा धण्णस्म सत्यवाहस्स एयमटुं जोमदहति ४ धण्णस्म एयमटुं अग्नदहमाणा ४ अमेव ते दिफला तेणेव उवागछति, तेसिणं गंदिफलाणं मूलाणिय जाव बीममंति,
तसिणं आवाए भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरावति ॥१२॥एवामेव परंतु वहां रहे पीछे उन का रस परिणपते हुए सुरूप पने परिणमा |॥ १० ॥ अहो आयुष्ण्न् ! श्रमणों एमे ही हमारे साधु माधी यावत् पांच कापगुणों में गूद नहीं होने है वे इस भव में बहुत मायु, साधी. श्रावक व श्राविकाओं में पूज्यनीय होने है और परलोक में दर्गनि में नहीं जाने है यावन् परंपरा से मक्ष जाने है. ॥१॥ कितनेक पुरुषाने धना सर्थवाह के वचन की श्रद्धा प्रतीति व रूच की नहीं है और नंदीफर वृक्ष की पम गये. उनके मूल कंद वगैरह खाने गे, छाया में विश्राम करने लगे. उन को पहिले कल्याण हुभा परंतु जब उस का परिणाप हुआ तब विना मृत्यु,से मरण हुभा ॥ १२ ॥ अहे
पहनावहादालाला मुखदवमहायजी वागम माह
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