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- अनुवादक-वासनाचारी मुले श्री अमोलक ऋषिजी
गुम्म लयावल्लि वच्छाइए, अणेगवाल सय संकणिजेयाधि होत्था ॥ २ ॥ तस्मण.. जिण्णु जाणरस बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे भरा कृषएयावि होत्था ॥ ३ ॥ तस्सणं भग्गकृवस्स अदूर सामंते एत्थणं महेगे मालुपाकच्छएयावि होत्था, किण्हे.. किण्होभासे जाव रम्म महा मेहेणिउरबभूते; बहृह सबले हिंप, गुच्छहिय गुहिय लयाहेय, वल्लीहिय, तणहिय, कुसेहिय, खाणुएहिय, संछण्णे परिछन्ने अन्तोझसिरे 'बाहिर गंभीरे, अणेग वाल सयसंकगिज्जयाविहोत्था ॥ ४ ॥ तत्थणं रायगिहे नगरे लता वल्ली व वृक्षों से आच्छादित बना हुवा था और सेंकडों सपदि उस में रहते थे. ॥२॥ जीर्ण उद्यान के बीच में टूटा हुवा एक कूप था. ॥ ३ ॥ उस कूप की पार मलूका नामक कच्छ था. वह कच्छ वृक्षों की सघनता से कृष्ण वर्ण हो रहा था. उस की प्रभा भी कृष्ण वर्ण मय यावत् रमणीय थी. महामेघ के निकुरंच भूत वह कच्छ था. बहुन वृक्षों, वेगनादि के गुच्छे, वंश जालादि ग्रहों. चम्म कादि लताओ, औषधियों की वल्लियों, तण, कुश व कोले के बिल से वह कच्छ कप्त व अच्छागि था. वह कच्छ अंतर भाग से विस्तृतथा परंतु बाहिर से गंभीर दीखता था. और अनेक प्रकारके सो से वह कच्छ व्याप्त था. ॥ ४ ॥ उस राजगृह नगर में धन्ना नामक, मार्थवाह रहता था. वह ऋद्धिवंत,
१ माल का गुठली वाले बेरादिक वृक्ष के समुह को कहते हैं,
• प्रकाशक-राजावादाला सुखद बमहारजी वालारज .
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