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श्रुतस्कन्ध +8 488+ पष्टमांग-झाताधर्मकथा का प्रथम
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याएवद्रिय कुलवंसतंतुकमि निरवयक्खे समणस भगवओ महावीरस्म अतिए मुंडभवित्ता भगाराओ अणगारियं पन्वइस्ससि ? ॥९॥ तएणं से मेघकुमारे अम्मा पिउहिं एवंयुत्तेसमाणे अम्मापियरोएवं वयासी-तहेवणं तं अम्मो ! जहेवणं तुम्हेममं एवं एवं वयह, तुमंसिर्णाया अस्हे एगेपुत्ते तं चैव जाव निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स आव पब्वइस्सइ ॥ एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भत्रे अधुवे अणिय असासएवसणस्स उद्दवाभिभूए. विजुलयाचंचले अणिचे जलबब्युयसमाणे कुसग्ग
जलविंदुसन्निभे संज्झारागसरिसे, सुविणवेसणोवमे, सडणपडणविसणधम्मे पच्छा वस्था पूर्णहो जावे, पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि होवे तव संसारके कार्यकी बाछा रहितहो तू श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास मुंड बनकर गृहवास से साधुपना अंगीकार करना ॥ ९८ ॥ मातपिता के ऐसा कहने से मेघकुमार उन को ऐसा बोला-अहो मातपिता ! जैसे तुम कहते हो कि मैं तुम को एक इष्टकांत यावत् श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मवजित होना. वैसे ही है, परंतु अहो मातपिता ! मनुष्य भव अध्रुव, अनिस, अशाश्वत, सदैव हजारों उपद्रव से व्याप्त है, विजली के चमत्कार जैसा चंचल है,3 पानी के परपोटे समान अनिय है, कुशाग्र जल विन्दु समान अस्थिर है, संध्या राग समान वस्वप्न-दर्शन
488+ उत्क्षिप्त ( मेघकुगर ) का प्रथम अध्ययन +8
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