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अर्थ
48 अनुवादक - बालह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
धारा सिंचमाणी पयोहरे कलुण विमण दीणे शेयमाणी कंदमार्णा तिप्पमाणी सोयमाणी चित्रमाणी मेहकुमारं एवं वयासी तुम्हसिणं जाया! अम्हं एगपुत्ते इट्टे कंते पिए मणुण्ण मणामे धेजे बेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंङग समाणे, रयणे, रयणभूए जीवि उस्सासिए, हिययाणंदजणणे, उवरंपुष्कं बदुलहे सणयाए किमंगपुण पासययाए णो वलु जया ! अम्मे इच्छामो खणमावविप्पओगंसहित्तए भुंजाहितावजाया ! विपुले माणुस्सर कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो, तओपच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिण
मोती गिरते हैं जैसे अरिखोंमें से स्तनपर अश्रु वर्षातीहुइ, करुणा जनक खराब मनसे दीन के जैसी रोती हुई, { आनंद करती हुई, पीडा पातीहुई, शोक करती हुई व विलाप करती हुई मेघकुमार को ऐसा बोली- हे पुत्र ! तु हमको एकडी इष्ट, कांत, प्रिय, मनोश, मनको आनंदकारी, धैर्य देनेवाला, विश्वासकारी, मानने योग्य, बहुत मानने योग्य, अनुपत, आभरण के करंड समान, कुलरत्न, रस्न समान जीवित बढ़ानेवाला, श्वासोश्वास समान हृदय को आनंदकारी अंबर पुष्प की समान दुर्लभ ऐसा एक ही सुनने को है तो देखने का तो कहनाही क्या ? अहो पुत्र ! हम क्षणमात्र भी तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते हैं. अहो पुत्र ! जहां लग हम जीते रहें वहां लग तुम मनुष्य संबंधी भोग भोगवो. तत्पश्चात् अत्र हम काल करजावें, और तेरी भी यौवना
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● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्याामलदजासी
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