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NRN षष्टक झाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
सिद्धे उजवन्ने ॥ ततो अणंतरं चइत्ता महाविदेहवासे सिञ्झिहिति जाब सन्दुक्खाण मतं करिहिति ॥ २७ ॥ एवामेव समणाउसो ! जाव पन्वतिते समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं गोसजति जोरजति जाव णो विप्पडिधायमावजाते, सेणं इहभवे चेव बहणं समगाणं बहुण समीणं बहुणं सावयाणं बहुणं सावियाणं अचणिजे वंदणिजे पूणिज्जे सकारमिजे- सम्मागणिजे कल्लाणं । मंगलं देवयं . चइयं पज्जुवासणिजे तिकटु, परलोए बियणं णो आगच्छति बहुणं दंडणाणिय मंडणा गिय तंजणाणिय तालणाणिय जाव चाउरतं. संसार कंतारं जाव बीतीवइस्सइ॥ जहा' महित काल के अवमर में काल करके सर्वार्थसिद्ध में देवतापने उत्पन्न हुए. वहां से चक्कर महाविदेह । क्षेत्र में सीझंगे, बुझेंगे व सब दुःखों का अंत करेंगे ॥ २७ ॥ जैसे पुंडरीक अनगार काम भोग में गृद्ध नहीं होने से सब दुःखें से रहित हुए, वैसे ही जो कोई साधु साधी प्रवजित बनकर मनुष्य संबंधी काम मोगो में आसक्त नहीं होते हैं यावत् उन्हें अंगीकार नहीं करते थे इस भव में बहुत साधु साध श्रावक व श्राविकाओं में अर्चनीय, वंदनीय, पूज्यनीय सरकार, सन्मान योग्य, कल्याणकारी देवसमान, मानवंत, व पर्युपासना के योग्य होते हैं, परलोक में किसी प्रकार का दंड, मुंड, तर्जना ताडना वगैरह
मुंगारक कडरिक का उनोस अध्ययन
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