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सूत्र
अर्थ
488पष्टांग ज्ञाना धर्मकथा का प्रथम तन्त्र 4224
पियरो पढमेदिवसे जातकम्मं करेइ, त्रिइयदिवसे जागरियं करेइ, तइयदिवसे चंददूर दणियं करेइ, एवामेव निव्वते असुइ जातकम्मकरणे संपत्ते बारसह दिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेइ २ मित्तणाइ णियग सयण संबंधि परिजण बलंच बहवे गणणायग जाव आमंतेत्ति, तओ पच्छा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय जाव सव्त्रालंकार विभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ गणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा, एवंचणं विहरइ, जिमिय भुत्तुतरागयावियणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया, तंमित्तणाइ णियग सयण संबंधि गणनायग
दूसरे दिन जागरणा की. तीसरे दिन चंद्र सूर्य का दर्शन कराया यों अशुचि की निवृत्ति हुए पीछे बारहवे दिन विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम तैयार कर मित्र ज्ञाति निजके, स्वजन व संबंधि व अन्य लोगों सेवा बहुत गणनायक यावत् आमंत्रण दीया. तत्पश्चात् स्नान किया, कुल्ले किये यावत् सर्वालंकार से विभूषित बने. बहुत बडे भोजन मंडप में विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम मित्र ज्ञाति गणनायक की ( माथ यावत् आस्वादते हुए, विशेष आस्वादते हुए विभाग करते हुवे व उपभोग करते हुवे भोजन कीये पीछे राजा व राणी अपने पहिले के आसनपर बैठे और निर्मल पानी से कोल्छे
विचरने लगे, करके मुख
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+8+- उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 488+
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