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अनुवादक-पालप्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी "
एगाट्टियाए मग्मणगवसणं तंचव जाव णूमेमो तुम्हें पडिवालमाणे चिट्ठामो ॥ १९ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे तेसि पंचाहं पंडवाणं एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाब तिबलितं एवं वयासी-अहो जयाणं मए लवण समुदं दुवे जोयण सयसहस्सं विच्छिण्णं वीतीवतित्ता पउमणाम हयमहिय जाव पडिसेहिता अमरकंका संभंग्गा दोवतीदेवी साहत्थि उवणीया तयाणं तुन्भेहि मम माहप्पं णविण्णायं इयाणि जाणिस्सह लिकटु, लोहदंड परामुसइ २त्ता पंचण्हं पंडवाणं रहं चूरति चूरित्ता णिव्विसए
आगावति, णिविसए आणावता ॥ तत्थणं रहमदणं णाम कोट्टे णिविट्टे ॥१९१॥ Eगोपकर रखी है. और आप की मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे हम यहां बैठरहे हैं. ॥ १९० ॥ इन पांचों पांडवों में
के बचन सुनकर कृष्ण वासुदेव आसुरक्त हुवे यावत् ललाट में त्रिवली घडाकर ऐसा बोलने लगे कि जब मैंने दो लाख योजन का लवण समुद्र उल्लंघकर पद्मनाभ राजा के रथगज यावत् सब को दशो दिशी में भगाकर अमरकंका राज्यधानी तोडडाला और द्रौपदी को हाथों हाथ लेआया तब तुमने मेरा पराक्रम जाना नही तो अब जानेगें. यों कह के लोह दण्ड उठाया और पांचों पांडवों के रथ पर मारकर उनका चूर करदिया और पांचों पांडवो को देश निकाल कर दिये, वहां रथमर्दन मामक कोट बनाया। १ ९॥
पकाधक-राजाबहादुर काला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसाद 610
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