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अर्थ
483- षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4
अझ थिय जाब जाणित्ता था वितरति ॥ तएण से कण्ह वासुदेवें मुहुचंतरं समासासेति २ चा गंगंमहानदि बासट्ठि जाव उत्तरेति २ प्ता, जेणेव पंचपंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता पंचपंडवे एवं वयासी- अहोणं तुब्भे देवाणुपिया ! महावलवंगा जेणेव तुज्झे गंगा महानदी वाट्ठि जाव उत्तिष्णा, इत्थं तहिं तुम्भेहिं पउमणा हे जात्र णो पडिसेहिए ॥ ततेणं तं पंचपंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्तासमाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवापिया! अम्हे तुम्भेहि विसज्जिया समाणा जेणेव गंगामहानदी तेणेव उवागच्छामो
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कृष्ण वासुदेव का ऐसा अध्यवसाय जानकर गंगादेवी ने वापर स्थल बना दिया. जिसपर कृष्ण वासुदेवने } ( दो घडी विश्राम लिया. फीर गंगा महानदी तीरकरांच पांडवों की पास गये और उन को कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम बहुत बलवंत हो, क्यों कि तुम ६२॥ योजन के विस्तार वाली गंगा नदी तीर गये. तब तुमने पद्मनाभ राजा को क्यों भगाया नहीं. तब पांचों पांडव कृष्ण वासुदेव को कहने लगे कि अहो ( देवानुप्रिय ! आपने हम को विसर्जित किये सब हम गंगा महानदी की पास आये. वहां गवेषणा करते | हुए छोटी नाव हम को मीली यावत् आपका पराक्रम देखने के लिये हमने वह नावा पीछी नहीं भेजी परंतु इसे.
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418+- द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 418+
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