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सूत्र
अर्थ
41*+ षष्टाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
जेणेव सुव्ययाओ अजाओ तेणेव उवागच्छ २ बंद मंस वेदइत्ता नमसइसा एवं वयासी-आलित्तेणं जहा देवाणंदा जाव एक्कारस अंगाई बहुणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणति २ ता मासियाए संलहणाए अत्ताणं ज्झसित्ता सट्ठिभत्ताई अणरुणाई आलोइय पडिक समाहिपत्ता कालमासे काला कच्चा अन्नतरेसु देवलोएस देवन्ताए उवण्णा ॥ ३६ ॥ ततेगं से कणगरहे राया अंन्नया कयाइ काल धम्मुणा संजुत्ते यात्रि होत्था ॥ ३७ ॥ ततेण से राइसर जाव णहिरणं करेइ, अन्नमन्नं एवं बयासी एवं खलु दोषाणुपिया ! कणगरहे राया रजेय जाव पुत्तेय त्रियंगच्छित्ता
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की पास आकर वंदना नमस्कार कर जैसे देवानंदाने कहा था वैसे ही कहा अध्ययन किया. बहुत वर्ष पर्यंत साधुपना पालकर एक मांग की संदेखना से सहित भक्त का 'अनशन करके आलोचना प्रतिक्रमण बाल
के अवसर में काल
करके देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुई ॥ ३३ ॥ कनकस्य राज भी एकदा काल धर्म को माप्त हुना ॥ ३७ ॥ बह राज राजेभरने करके परस्पर ऐसा कहने लगे कि अहो देव नुप्रिय
यावत् अग्यारह अंग का
आत्मा को झोमकर साठ
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** तेतली पुत्र का चउदहना अध्ययन २०१
उनके शरीर का हरण किया. मोहरण के कनकरथ राजा यावत् पुत्रों के अंगोपांग को दीन
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