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. ततेणं रविषया धग सत्यवाहं एवयासी-तेवे ताया!(एपंच साल अक्खया नो अन्ने।
कहणं पुत्ता ? एवं खलु ताओ : तुम्भेइतो पंचमंसि जाव रुवाछो भावियत्रयं एत्थ कारणेणं तिकटु, ते पंचसालि अक्खए सुडेवत्थे जाव तिम्झं डिजागरमाणीय विहरामि ॥ तं एएणं कारणेगं ताओ! तेचेच ते पंवसालिअक्खश, नो अन्ने ॥२२॥ ततेणं से धागे रविवतियाए अतियं एयम टुं सोचा हट्टतुटु, तस्स कुलघरस्त हिरण्णरसय. कंस-दृस-विटल धण कगग जाव सावइजस्सय भंडागारिणी दुवेति
॥ २३॥ एवामेव समणा उसा ! जाव पंचय से महत्वयाई रक्खियाति भवंति, सेणं १२ किम नरद है ! सब उसने उत्तर दिया कि अहो तात ! अपने मुझे आज से पाचवे वर्ष पहिले दिए उसे लेकर मैं एकांत में गई. वहां मुझ ऐनाविच र हुवा कि इस में मुच्छ कारन होना चाहिये इस विचार से में इस को शुद्ध वस्त्र में बांधकर यायम् तीनों दल उस के लिये संभाल रखती हुई विचाती . हा अहो नात ! पह शाली के दाने आपके दिये हुव हैं परंतु अन्य नहीं हैं ॥२२॥ रक्षिता की पाम से
पेन मुमतापमान याबाई हट तुष्टहर और उमेघा के सब हिरण्य. सूर्ण, कांस्य, दृष्य, व विपुल धन ॐाय या स्थापते (उत्तम धन मागियादिक) के भंडार की चाबियों ( कुचीयों )दी॥२॥ सुधर्म स्वामी कहने । सिक आहेअ युष्मन्त साधुओं ! ऐसे हो जो साधु साधी पांच महाव्रत का रक्षम करते हैं वे इस भा में बहुत ]
नाघकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध
रोहिणी का पांचवा अध्ययन
षष्ट
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