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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी.
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पज्जय पजयागए सुबहुहिरण्णेय सुवण्णेय कसेय मणि-मात्तिए-संख-सिलप्पवाल-रत्तारयण संतसारसावतेजेय अलाहि जाव आसत्तमाओकुल वसंओ पग्गामंदाओ पगामभातुं पगामंपरिभाएओ तं अणुहोहिइतावजाया ! विपुलं माणुस्सगं इडिसक्कारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूय कल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पव्वइस्ससि?॥१०२॥ तएणं से मेहकमारे अम्मापियरं एवं वयासी-तहेवणं अम्माजण्णं वयहइमेय ते जाया! अजग पजय जाव तओपच्छा अणुभूय कल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पवइस्ससि॥एवं खलु अम्मयाओ! हिरण्णेय सुवण्णेय जाव सावतेजे अग्गिसाहिए,चोरऐसा कहने लगे. अहो पुत्र! तेरेदादा, परदादा, और पिताके परदादा से यह बहुत हिरण्य सुवर्ण, काँस्य, मणि मोतिक, शंख, सीला, प्रवाल, रत्न, रजत व प्रधान द्रव्य संपूर्ण यावत् सातवंश पर्यंत बहुत दीन दुःखी को दवे, बहुत स्वयं भोगते व बहुत स्वजनो का विभाग करते खुट नहीं इतना रहाहुवा है इसलिये अहो पुत्र विपुल मनुष्य की ऋद्धि सत्कार व समुदाय महित सुख को अनुभव तत्पश्चात् श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना. ॥१०२ ॥ तत्पश्चात् मेघकुमार मातपिता का एसा बोले-अहो मातपिता ! जैसे तुम कहते हो कि दादा पडदादा यावत् का अनुभव कीये पीछे श्रमण भगवं महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना यह सत्यत्र है, परंतु अहो मात पिता ! हिरण्य सुवर्ण यावत् पाधन द्रव्य अनि मेजले, चोर हरणकरे,
अर्थ
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सायजी ज्वालाप्रसादजी -
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