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षष्ट इवाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 44.
समाणा बहणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगागं वहूगं स.पियाणं, वहूणं अण्णउत्थियंगित्थीणं सम्मं सहति ॥ एसणं पुरिसे सव्वाराहए पत्ते ॥ एवं खलु गोयमा! जीवा आराहगा विगहगा भवंति॥६॥ एवं खलु जब! समणेणं भगवया महावीरेणं जाच संपत्तेणं एक्कारसमस्त णायज्झयणस्त अयम? पण्णत्त, तिमि ॥ एक्कारसमं गायज्झयण सम्मत्तं ॥ ११ ॥ `जह दावदवतरुवण मवं साहु जहेह दिब्धिगा वाया तहा समणाइय सपक्ख वयणाई दूसहाइ ॥ १ ॥ जह सामुद्दयवाया तहण्हतित्याति कडुयणाई, कुसुमादि संपया जहा सिवमगराहणा तहय ॥ २ ॥
जह कुलमाइ विणासो, सिवमग्ग विराहणा तहा या ॥ जहा दीवव यु जोगे. बहुमाध्वी, श्रावक व अंत्रिकाओं के बहुत अन्यतीथिनों व गृहस्थिओं के वचनों .म्यक् प्रकार से सहन करते हैं हैं ये स अराधक होते हैं. अहो गौतम ! इसी तरह जीवों आराधक व विरोधक होते हैं. ॥६॥ अहो जम्मू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथा के अग्यारहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह अग्यारहवा अध्ययन संपूर्ण हुवा. ॥ ११ ॥ उपसंहार-दाबद्रव वृक्ष जमे साधु और द्वीप संबंधी वाय 4 जैमे अपने पक्षमश्रण दि के दुःसह वचनों ॥ १ ॥ समुद्र के व.यु जैसे अन्यतथियों के कटु वचन और कु मादि संपदा जैसे मोक्ष मार्ग की अराधा. ॥ २ ॥ कुसुगदक का विनाश जैसे मोक्षमार्ग की ।
416-दाबद्रव वृक्षों का इग्यारहवा अध्ययन 480
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