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__इड्डीइ सियअणिड्डी ॥ ३ ॥ तह साहम्मिय वयणाण, सहण माराहणाभवे, बहुआ इय
राण मसहगे पुगसिवमग्गं विराहणाथोवा ॥ ४ ॥ जह जलहिवायुजोगे थोबड्डी बहुथरा अणिट्ठीओ. तहपर पक्खक्खमाणा, आराहणमासि बहुयरं ॥ ५ ॥ जह उभयवायु, विरहे सव्वतरु संपयाविणटुति ॥ अणिमित्तो भयमच्छररूवे हराहविणा तहय ॥ ६ ॥ जह उभयवाय जोगे सवसमिही वणरस संजाया तहउभय वयणसहणे सिवमग्गाराहणा पुण्णा ॥ ७ ॥ ता पुण समण धम्माराहणचित्तो सया राधना जानना. जैसे द्वैप वायु के येग से बहुत ऋद्ध होवे और अला विनाश हो ॥ ३ ॥ वैसे ही स्म यों के बचन सहन करने से आराधना बहुत होवे और अन्य के वचन सहन नहीं करन में विराधना थे डी होवे ॥ ४॥ जैसे समद्र के वायु के योग से ऋद्ध थोडी व नाश बहुन होता है वैसे ही अन्य के वचन सहन करने में आराधना व विराधना बहन होती है. ॥५॥ जैसे उभय वायु के विरह से अर्थात् समुद्र व द्वेष के वायु के न होने से वृक्ष की सर्व ममृद्धि का विनाश होता है वैसे ही स्वधर्मा
व अन्यीथिंक दोनों के वचन सहन नहीं करने से मत्सर भ व धारन करता हु विनाश को प्रप्त होता 16 है. ॥ ६ ॥ जैसे उभय वायु के योग से वृक्ष के वर्णदि की सब समृद्धि होती है वैसे ही दोनों के वचन
अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
काशक-गजाबहादर लाला मुग्वदवमहायजी ज्वालाप्रमादकी
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