________________
४६४
+2 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋपनी +
एमणं मए पुरिसे देसागहए पणत्ते ॥ ४ ॥ समणाउमो ! जयाणं णो दंविच्चगा जो समुद्दगा ईसिं पुरोवाया पच्छावाया जाव महावाया. वायति तयेणं सव्वे दाबद्दल रुक्खा जुण्णा ज्झोडा ॥ एगमेव समणाउयो ! जाव पव्वतिए समाण बहूगं समणाणं बहूण समणीणं बहूणं सावयाणं बढणं सावियाणं, वहणं अन्नउत्थियनिहत्थाणं सम्मं नो सहति,, एसणं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते ॥ ५ ॥ समणाउसो ! जयाणं दीविश्वगावि समुद्दगावि ईसिं जाव वायंति तयाणं सव्वे दावदवा पत्तिया
जाव चिट्ठति ॥ एवामेत्र समणाउसगे ! जो अम्हे जिग्गंथोत्रा णिग्गिथीवा पवतिए देश आराधक हैं ॥ ४ ॥ जय द्वीप अथवा समुद्र के पुगवायु यावत् म्हागयु नहीं चलता है तब सब दाबद्रव वृक्ष जीर्ण होते हैं यावत् मड जाते हैं वो ही हमारे प्रवजित हुए साधु साधी अन्य साधु, माध्वी, श्रावक व श्राविकाओं के वचनों से ही अन्यतथि व गृहस्थियों के व सम्यक् प्रकार से नहीं सहन करते हैं वे सर्व विराधक हैं ॥ ५ ॥ और जर द्वीप संबंधी व ममुद्र मंबंरी पुगवाय यावत महावाय चलना है तब दावदन वक्षों पत्र वाले. पण वाले यावत् रहते हैं ऐसे ही आयुष्मन श्रमणों : हरे साधु साध्वी प्रनित हुए बहुन माधू
पाशिक-रांजाबहादुर लाला मुखदवस हायजी ज्वालाप्रसादजी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org