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-पटांग ज्ञाताधर्म था का प्रथम श्रुतवन्ध
बहु सायाणं, बहूणं सावियाणं सम्मं सहति जाव अहियासेति ॥ बहूणं अण्णउत्थिया बहूणं गिहत्थाण णो सम्मं सहति जाव नो अहियामेति ॥ एसणं मए पुरिसे देवराहए पण्णत्ते ॥ ३ ॥ समणा उसो ! जयाणं सामुद्दगा ईसिंपुरेवाया पस्थात्रया मंदावाया महाशया वायंति, तनेणं बहने दावदवा रुक्खा जुण्णा उझोडा जात्र मिलायमाणा चिट्ठति अप्पे दावद्दव रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया जाव उसोभमाणा चिट्ठति ॥ एवामेव समणाउसो ! जो अम्हणिग्गंथोत्रा णिग्गथिवा पव्त्रतिसमाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं गिहत्थाण सम्मं सहति जाब अहियासेनि बहूणं समणाणं बहूगं समणीणं, बहूणं सात्रयाणं, बहूणं सात्रियाग नो सम्म सहति जो हित शिक्षा देते हैं उसे सम्यक् प्रकार में सहन करते हैं और अन्य तीर्थियों व गृहस्थियों के दुर्बचन सम्पक् प्रकार मे सहन नहीं करते हैं वे ज्ञ'नादि में देश विराधक होते हैं || ३ || जब समुद्र संबंधी किंचित् पुरावायु, पच्छा वायु मंद्रवायु व महात्रायु चलता है तब बहुत दावद्रव वृक्ष जीर्ण होते हैं. मटजते हैं यावत् म्लान होकर रहते हैं और कितनेक टावर वृक्ष पत्र, पुष्प, फल वगेरह सहित शोभित हवे दीखते हैं. अहो आयुष्मन्त श्रमणों! ऐसे ही हमारे साधु साध्वी प्रत्रजित होकर अन्य तीर्थियों व {गृहस्थियों के वचन सहन करते हैं परंतु माधु साध्वी, श्रावक व श्राविका के वचन नहीं सहन करते हैं व
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** दादर वृक्षों का इग्वारा अध्ययन
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