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पष्टांग नाना धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध428
एवं वयासी-अहणं देवाणुप्पिए ! पुव्वभवसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महवीए जण्णं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तंसि गिण्हताणं मममणसीकरेमाणे चिट्ठइ, तएसणं देवाणुप्पिए! अहंणं इहं हव्वमाग, संदिसहणं देवाणुप्पिया! किं करेमि? किं दलयामी, किं पत्थयामी ? किं वातेहियइच्छियं? ॥ ५० ॥ तएणं से अभयकुमारे तंपुब्यसंगइयं
देवं अंतलिक्खपडिवण्णं पासइ २ हट्ट तुट्ठ पोसहं पारेइ २ करयल अंजलिंकटु, एवं है क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! ममचुलमाउयाए धारिणीएदेवीए अयमेयारूवे अकाल
दोहले पाउब्भूए-धण्णओणं ताओ अम्मयाओ तहेव पुव्वगमणेणं जाव विणिज्जामि, वाला सौधर्म देवलोक में रहने वाला महाऋद्धिक देव हूं तैने मेरे लिये पौषध शाला अष्टम भक्ततप करके मुझे याद कीया है इस लिये मैं यहांपर आयाहूं तो अहो देवानुप्रिय ! मैं क्या करूं ? क्या देवू ? क्या चहाते हो ? अथवा तेरा क्या हितइच्छं? ॥५०॥ उतसमय में अभय कुमार उस पूर्व संगति वाला मित्र देवता को अंतरीक्ष में रहा हवा देखकर हृष्टतष्ट होकर पोषय वन को पारा [ पूर्ण किया ] और हस्तद्वय जोडकर ऐसा बोले-अहो देवानुप्रिया ! मेरी छोटीमाता धारणी देवीको ऐसा अकालमें मेघका दोहल उत्पन्न हुवा कि उन माताओं को थन्य हैं यावत् दोहल पूर्ण करूं अहो देवानुप्रिय! तुम मेरी छोटी माता धारणा
48 उत्क्षिप्त ( मघ कमार ) का प्रथम अध्ययन48+
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