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विय . विचित वेमो दीवसमुदाणं असंखारिमाणणामधेजाणं मम्झकारण वीइवयमाणे उजायंतो पभाए घिनलाए जीवलोयं रायगिह पुरवरंच अभयस्स तस्सपासओवयितिउ दिवरूयधारी ॥ ४९ ॥ (पाठान्तर-एकोतावसोगमे ॥ अणोविगमो-ताए उकिट्ठाए, तुरियाए, चवलाए, चंडाए, सीहाए, उद्याए, जयणाए, जेयाए, दिव्वाए देवगइए जेणामेव अंबुद्दीवे २ भारहेवासे जेणामेव दाहिणद्वभरहे रायगिहे पयरे पोसहसाले अभयकुमार तेणामेव उवागच्छइ २) तएणं
से देवअंतलिक्खपडिवण्णे दसहवण्णाई संखखिणीयाई पचरवस्थाई परिहिये अभयकुमारं करके मुंदर बना देवता असंख्यात द्वीप समुद्र की मध्यमें से होता हुवा उद्योत करता हुवा राजगृह नगरमें दीव्य रूप धारिदेवता अभय कुमार की पास उतरा ॥ ४२ ॥ (एक पाठ इस तरह है और है दूसरा पाठवह उसकी उत्कृष्ट, स्वरित चपल, चंड-रौद्र शीघ्र, अहंकार उत्पन्न करे वैसी, दीव्य देवगति से जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में दक्षिण भरत में राजगृह नगर की पौषध शाला में
अभय कुमार की पास आया) पांच वर्ण बाले व छोटी २ घुघरियों वाले वस्त्र महित घुघरीयों घमकाता 17 अंतरीक्ष आकाश में रहकर अभय कुमार को ऐसा बोला-अहो देवानुप्रिय ! मैं तेरा पूर्व परिचय
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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