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पांग-शाला धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध +is+
सव्वदीए सव्वजुइए जाव दुंदुभी णिग्घोसणाइरवेणं रायगिहेणयरे सिंघाडग तिगचउक्क चच्चर जाव महापहेसु णागरजणेणं अभिणंदिजमाणे जेणामेव वेभारागिरिपन्चए तेणामेव उवागच्छइ २ वेभारगिरिकडगतड पायमूले आरामेसुय, उज्जाणेसुय,
काणणेसुय, वणेसुय, वणसंडेसुय, रुक्खसुय, गुच्छेसुय, गुम्मसुय, लयासुय, वल्ली.. सुय, कंदरासुय, दरीसुय, चुंढीसुय, दहेसुय, कत्थेसुय, इसुय, संगमेसुय, विधार
सय. अस्थमाणी, पेच्छमाणी. पजमाणीय; पत्ताणिय, पुप्फाणिय, फलाणिय, पल्लवाणिय, गिण्हेमाणि माणमाणि, अग्घाएमाणी, परिभुजेमाणी, परिभाएमाणीय. केभारपर्वत की पास आई. वहाँ पर स्त्री पुरुष कीडा करे वैसे आराम. पुष्पादिक ऋदिवंत वृक्षोंवाले उद्यान, नगर की पास होवे सो कानन, नगर से दूर होवे मो वन, समान जातीवाले वृक्षों के समुह सो बनखण्ड, माम्रादि वृक्ष होवे सोवन,, गन के वक्ष सो बुच्छ, द्रहके स्थान बनमालादिक वंश जाली प्रमुख गुल्म, सहकार चंपादिक वृक्ष लता, पेठादिक की वेली सो वाल्ल, भगालादिक के बनाये हुवे स्थान सो कंदरा, गुफारूप पानी के द्रह सो दरी, द्रह, कच्छ, नदी, दो नदियों का मिलना होवे सो संगम, और विहार में बैठती हुए देखती हुई, स्नान मज्जानादि करनी हुई, पत्र पुष, काल व पञ्च व का प्राण करती हुई सुंधने योग्य पदार्थों को सुंधती हुई, भोगने योग्य वस्तु को भोगती हुई, व देने योग्य वस्तु देतीहुई, वेभारगिरि पर्वत की
484उत्क्षिस (मकुमार) का प्रथम अध्ययनक
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