________________
६६५
। अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी 30
रायहाणि अणुप्पविसति २ चा दारातिपिहेति २ ता रोहासज्जे चिट्ठति ॥ १७२ ॥ ततेणं से कण्हेवासुदेवे जेणेव अमरकंका गयरी तेणेव उवागच्छइरसा रह ठवित रत्ता रहातो पञ्चोरुहति २ त्ता बेउब्विय समुग्घाएर्ण समोहण्णति २ त्ता एग महं णरसीह रूवं विउवइ २ ता महया महया सद्देण पाद दद्दरं करेति ॥ १०३ ॥ ततेणं से कण्हेणं वासुदेवणं महया २ सद्देणं पाददद्दरणं कएणं समागेणं अमरकका रायहाणी संभग्गपायारगापुरहालयं चरियंतोरणं पल्हत्थियं पवर भवण सिरिघरा सरसरस्स धरणियले सन्निवइया ॥ ततेणं से पउमणाभेराया अकरकंक रायहाणि
संभगां जाव पासिता भीए दोवतिं देवि सरणं उवेति २ ॥ १७४ ।। ततेणं सा आकर उस के द्वार बंध करदिये और नगर का निरोध करके रहा ॥ १७२ ॥ तत्पश्चात कृष्णवासुदेव अमरकंका राज्यधानी की पास आये. वहां रथ को वडाकर के उस में से नीचे उतरे. वैक्रय समुद्घात करके एक बड़ा नृसिंह का रूप धारन किया, और बडे २ शब्दो मे पांवों की आस्फालने लगे. ॥१७॥ तब अमरकंका राज्यधानी के प्रकार, गोपुर, अटाली, मार्ग, तोरण, प्रधान मकानो, और श्री लक्ष्मी के भंडारो (खजाने)सब तट कर धरणि तल में गिरपडे. पद्मनाभ राजा इस प्रकार यावत् खजाने को भूमिपर पढते हुए. देखकर भयभीत हुवा. और द्रौपदीदेवीके शरण आया. ॥ १७ ॥ द्रौपदी देवीने पमनाभ राजा को कहा
कामराजाहादुर मला पुरूदेवसहायनी ज्वालाप्रसादमी
।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org