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दोवती देवी पउमणाभं रायं एवं वयामी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाणासि कण्हवासुदेवस्स उत्तम परिसस्स विप्पियंकरमाणे, ममं इहं हवमाणेमाण, तं एवं मविगए गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! हाए उल्लपडगसाडए चुलगवत्थ गियस्थ अतेउर परियालेणं परिउडे अग्गाई वराई रयणाई गहाय मम पूरओ कओ कण्हवासुदेवं करयल जाव पायवाडिए सरणं उवेहि पणिवइय वच्छलाणं, देवाणुप्पिया! उत्तम पुरिसा॥ १७५ ॥ ततेणं से पउमणाभे राया दोवतीए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ
२त्ता पहाए जाव सरणं उवेति २त्ता, करयल जाव एवं वयासी-दिवाणं देवाणुप्पिया! अहो. देवानुप्रिय ! क्या तू यह ही जानता था कि मुझे यहां मंगवाकर कृष्ण वासुदेव की साथ शत्रुता भी होती है. ? अब भी अहो द प्रिय ! सू विलम्ब रहित जा और स्नानकरके पानी से भीगी हुई माडी पांव तक नीची पहिन कर तर अंतःपुरकी स्त्रियों सहित अत्युत्तम प्रधान रत्नों ग्रहण कर मुझे सव से
आगे रखकर कृष्ण वासुदेव को हाथ जोडकर उन के चरणों में पढकर उन' का ही शरण अंमीकार कर. अहो देवानाप्रय! उत्तम पुरुषों को नहीं प्रिय होता है. ॥ १७५ ॥ पबनाम राजामे द्रौपदी के
वचन का स्वीकार किया. उमने स्नान किया यावत् कृष्ण वासुदेव के चरण में पडकर बोलने लगा कि 10 अहो देवानुमिय ! उत्तम पुरुषों की ऋद्धि यावद पराक्रम मैने देखा. अहो देवानुप्रिय ! मी मैं इस की
षष्टांग ज्ञातावकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4-1
द्रौपड़ी का सोलहवा अध्ययन 48+
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