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सूत्र
- पष्ठाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध ही
समाणे गुणरयणं संवच्छरं तवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरिचए ? अहा सुहं देवापिया ! मा पडिबंध करेह ॥ १७६ ॥ तरणं से मेहे अणगारे पढ म उत्थ चडत्ये अणि देतेगं तनकम्मेणं दियागणुक्कडुर सराभिमुड़ आयावण भूमी यामाणे रविवीरागेणं अवाउडएणं दमा आगोक्खणं दियाट्टाणुक्कुडर सूराभिमु आयावणभूमी ए आयमाणे तिंवीरासणेणं अवाउडेगं. भूमीए अव उडे तच मात अम अमेगं अजिखित्तेणं तत्रो कम्मेणं दिवाणुड़ए, सूरीीनमुहे, आयावेमाणे
नमस्कार कर ऐसा कहने लगे अड़ भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं गुणरत संत्सर तप अंगीकार करू भगवान ने उसर दिया जैसे सुख क्षेत्र वैसे करो प्रतिबंध मत कहो || १७६ || तब मेघ मुनि प्रथम मास चिरत्नक २ (ए) से परावरने छ, दिन में उत्कट आसन से केलोको राखी रहने लगे. इस प्रकार एक पान पर्यन तप किया दूरे मास में छह मक्त अर्थात् बने, २ पारता से निरंतर तप कर ने लां. दिन में उत्कटासन से सूर्य का आप सहन करने लगे ओर रात्रि में वस्त्र रहिव वीरासन से रहते लगे. तीसरे पास मे अ
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उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्याय
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