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पष्टानहाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4
अणुविसंति २त्ता सएस २ आवसेसुय आसणेसुय सयणेसुय सणिसण्णाय संतुयट्ठाय 'बहुहिं गंधरहिय नाडरहिय उवगिज्झमाणाय उवगिजमाणाय विहरांति ॥ १.४ ॥ ततेणं से दवएराया कपिल्लपरं नयरं अणपविसति २ त विपलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति २त्ता कोटुबियपुरिसे सहावेइरत्ता एवं वयासी-गच्छहणं
तुब्भे देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरंच मज्जच मंसंच सिंधुंच का पढाव किया. फीर अपने २ श्रागस में प्रवेश किया. यहां अपने २ श्रावास में आसन शयन पर बैठकर संतुष्ट हुए और बहुन गंधर्ष गीतन.टक कराते हुए विचरने लगे. ॥१.४॥ तत्पश्चात् दुपद राजाने अपने नगर मे प्रवेशकर विपुल अशनादि बनाकर कौटुम्बिक पुरुषा को बोलाकर एसा कहा की अहा देवानुप्रिय तुम जाओ और विपुल अशन पान खादिम, स्वादिम, + मुरा, मांस, व निधुसुरा व प्रपन्ना : मदिग
यहां सूरा मांस कृष्ण वासुदेवके आवास स्थान पहुंचाने का कहा है इससे यहां कृष्णवासुदेव के भोग निमित्त जानना नहीं किंतु सेना आदि के लिये जानना. और कहा है कि जिनको जो प्रिय होवे उन को बह देना. इस से वहां कृष्ण बासुदेवने ग्रहण किया होवे बेसा नहीं हो सकता है. द्रपद राजा का कर्तव्य है कि सर्व प्रकार से आये हुवे राजाओं
का स्वागत करना. इस में जिन को जो ग्राह्य होता है उसे वे लेते हैं. सम्यक्स्वी इसे कंदापि ग्रहण नहीं करते हैं, } द्रपद राचाने सुरामास बनवाया इस से यह सम्यत्क्वी नहीं है ऐसा मालूम होता है.
+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 42
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