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पटांङ्गज्ञान धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध +
ताव ममं जाउएयांओ गजाति, ताव मम सेयं एवं सालयं तित्ता लाउयं बहु संभारणेहकयं एगंते गोवेत्तए; अj सालइयं महुर लाउय जाब गेहओगाढं उवक्खडित्तए २, एवं संपेहेइ एवं संपेहेइत्ता तं सालाइयं जाव गोवइ २, अण्ण सालाइयं महुर लाउयं उवक्खडेति, तेति माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासण वरगयाणं त विपुलं असणं ४ परिवेसेति॥६॥ततेणं ते माहणा जिमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयंत चोक्खा परममइभया सकम्म संपाउत्ता जायाधि होत्था ॥ ७ ॥ ततेणं ताओ माहणीओ
ण्हाया जाव भूसियाओ तंविउलं असणं ४ आहारेति, जेणेव सयाति २ गेहाति योग्य नहीं बन सका. यदि मेरो देगणियों नानेगी तो मर खिसना करेगी, इम से वे इस बात को जाने नहीं वैसा करना. इस से इस शाक को एकांत में गुप्त रखना और दूसरा मिष्ट तुम्मी का वैसे ही शाक बनाना मुझ श्रय है. ऐना विचार कर उन कटु तुम्बि का शाक का गोपन किया व अन्य मिष्ट शाक बनाया. जब वे ब्राह्मगों अशनादि करके मुख पूर्णकठे थे तब उन को विपुल अशनादि १रूसा ॥ ६ ॥ ब्राह्मणों जीमे पाछे शूचिभून बनकर अपने २ काम में प्रवृत्त हुए ॥ ७ ॥ फोर तीनों ब्राह्मणयों है न किया यावत् अलंकार से विभूषित बनकर विपुल अशनादि का आहार किया. फर अपने २१
द्रोपदी का सोलहवा अध्ययन
अर्थ
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