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सूत्र
44 अनुवादक-पामचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध ॥
तेणं कालणं तेणं समएणं रायगिहे णथरे होत्या वष्णओ ॥ तत्थणं रायगिहस्स नगरस्स बाहियो उत्तर पुरत्थिमदिसीभाए तत्थैणं गुणसिलए नामं चेइए होत्था वनओ ॥ १॥ तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंते वासी अजसु हमा नाम थेरा भगवंता जति संपन्ना कुल संपन्ना जाव चउदसपुत्री चउणाणोत्रगया पंचहि अणगार सहिं सद्धिं संपरिबुडे पुन्त्राणुपुत्रि चरमाणा गामाणुगामं दुइनमाणं सुहंसुहेणं बिहरमाणा जंगव रायगिहेणयरे गुणसीलए चेइए तेणेव समोसढा जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणा विहरंति ॥ २ ॥ परिसा णिग्गया,
उस काल उस समय
राजगृह नगर था, वह वर्णन योग्य था. उस राजगृह नगर की बाहिर ईशानकून {में गुणशील नामका उद्यान था. वह वर्णन योग्य था. ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के अंतेवासी जगत संपन्न कुलसंपन्न यावत् चउदह पूर्व के ज्ञान धारन करने वाले {स्थविर भगवंत आर्य सुधर्मा स्वामी पांचों साधुओं के परिवार से पूर्वानुपुर्वे चलते ग्रामानुग्राम सुख से विच रामजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे. वहां संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. ॥ २ ॥ परिषदा नीकली, धर्मकथा कही और परिषदा यहां से आई थी वहां पीछी गई.
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प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसायजी ब्यााप्रसादजी ●
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