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> षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कम्प 48
अंजलिंकटु जएणं विजएणं बहावेइ २त्ता एवं वयासी तुमेणं ताओ ! अण्णया मम एजमाणं पासित्ता अढाह परिजण्ह जाव मत्थयसि अग्घायह, आसणेणं उवणिमतेइ इयाणिताओ! तुम्भे ममं णो आढइ जाव णो आसणेणं उवनिमंतेहिं किंपि ओहयमाण संकप्पाझियायह, तं भवियन्वं ताओ ! एत्थकारणेणं, तओ तुझं ममताओ एयं कारणेणं अगहेमाणा, असंकमाणा, अणिण्हवमाणा, अपच्छाएमाणा जहा भूतमवि तहमसंदिद्ध एयमर्स्ट माइक्खह ॥ तएणं अहं तस्स कारणरस अंतगसणं गमिस्सामी ॥४४॥दएण सेणिएराया अभएणंकमारणं एवं वत्ते समाणे
अभयकुमारं एवं वयाणी-एवं खलु पुत्ता ! तवचुल्लमाउयाए धारिणीदेवीए तस्सगम्भशब्द से बधाये और ऐषा बोले-अहो तात ! जब अन्यदा मैं आपकी पास आता तब आप मुझे देखकर मेरा मुझें आदर सत्कार करते थे यावत् यस्तक भंघते थे आसन का आमंत्रणभी करते थे और आज आदर सत्कार नहीं करते हो व आसन का निमंत्रण भी नहीं करते हो और आर्तध्यान करते हुवे रहतेही इस से इसका कुछ कारण होना चाहिये. अहो तात ! इसका कारण नहीं छिपाते हुवे, किसी प्रकारकी शंका नहीं करते हुवे, किसी प्रकार का पश्चाताप नहीं करते हुये जैसा बना होवे वैसा शंका रहित वह मुझ कहो. इस से में इस का अंत करूंगा. ॥४४॥ जब श्रेणिक राजा अभयकुमार के उक्त बचन सुनकर
क्षिप्त (पेषकुमार ) का प्रथम अध्ययन 48
भावार्थ
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