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प्रचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी
मणोगए संकप्पे समुपजित्ता :- अण्ण ममं सेणिएर!या एजमाणं पासइ. ३ त्ता आढाइ परिजाणाति सकारेइ समाणेइ आलवइ संलबइ अद्धासणेणं उवणिमंतेइ, मत्थयंसि अग्धाइ ; इयाणिं ममसेणियराया णो अढाइ णो परियाणइ णो सकारेइ णो सम्माणेइ णो इटाहि-पियाहि-मण्णण्णाहिं उरालाहि वग्गुहिं आलवइसलवइ, णो अद्धासणेणं उवणिमंतेइ, णो मत्थयसि अग्घइ, किंपि ओहयमणसंकप्पो शियायइ, तं भवियव्वं एत्थकारेणं ते सेयं खलु मेसेणिएरायं एयमटुं पुच्छिन्तए एवं संपहेइ२त्ता,
जेणामेव सेणिएराया तेणामेव उवागच्छइ २त्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए उत्पन्न हुवा यावत् मनोगत संकल्प हुवा कि अन्यदा जब मैं श्रेणिक राजा की पास आना था तब श्रेणिक राजा आदर करते थे सत्कार करते थे सन्मानदेते थे, वार्तालाप करते थे, अर्धासन की आमंत्रण करते थे, व मस्तक सुंघते ते, परंतु आज श्रेणिक राजा मेरा आदर सत्कार नहीं करते हैं, मुझे अच्छा नहीं जानते हैं, सत्कार नहीं करते हैं, सन्मान नहीं देते हैं, और इष्ट कान्त, पिय, मनोज्ञ व, उदार वचन से वारतालाप नहीं करते हैं, अर्धासन की आमंत्रण नहीं करते हैं व मस्तक नहीं सुंघते हैं परंतु आर्तध्यान करते हैं, इस से इस का कारन कुच्छ होना चाहिये. मुझे उस का कारन पुछना श्रेय है. । विचार कर के श्रेणिक राजा की पासगये और मस्तक से आवर्त देकर श्रेपिाक राजा को जय विजय
.प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी.
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