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मत्र
हरियगण कंचुए पल्लविय पायवगणेसु वालविथाणेसु पसरीएसु उन्नतेसु सोभगमुबगमेसु वेन्मारगिरिप्पवात कडंग विमुक्केसु उज्झरेसु तुरियपहा विय पल्लोट फेणाउलं सकलु संजालवहंतिसु गिरीणइसु सजज्जुण नीवकुडय कंदलसिलिंब कलिएसु उयवण्णेमु मेहरासिय हट्ठतुट्ठ चिट्ठिय हरिसवंसयमुक कंठकेकारवंमुयंतेसु वरहिणेमु उडुव
समय जणिय तरुण सहरिय पणिच्चिएसु, णवसुराभि सिलिंधि कुडेय कंदल कलंब गंध पंक्ति,कोयले,गुयले,गुली,काजल, अरिष्ट रत्न जैसा काला वर्णवाला. यों पांचो वणसे आकाश में मंघ रंगित हुवा होवे फरकती,चमकती विद्यूत होवे, गर्जारव होता होये, वायु के विस्तार से आकाश में चपल बद्दल हुए होचे, त्वरित गति से जाते होवे,निर्मल पानी की धारा वर्पती होवे, पानी की धारा के प्रवाह से पृथ्वीभीजी होवे, पृथ्वी को आच्छादित कर रहे हुवे बद्दलों का विस्तार को तोडा होने और इस से वारंवार प्रकर्षपना
मेघ वर्षता होवे,धारा के समुह के पतन से पृथ्वी पर का वायुको शीतली भून कीया होवे, पृथ्वीरूपस्त्रीनेक तृण रूपी हरे रंग की कंचुकी धारन की होवे, वृक्षों कुंपलयाले हुवे होवे, पर्वत में मे झरण भरते हो नाले वगैरह पानी के भरे हुवे,बहते होवे उस समयमें सरजवृक्ष,अर्जुन वृक्ष,कदंब वृक्ष, व कुटम वृक्ष के अंकूगें
नीकलकर छत्रके आकारस बने हुवे होवे,उपवनमें हर्षवंत हृष्टतुष्ट बने मुक्त कण्ठहा कैकारव शब्द करते होवे, 17 वसंतऋतु के मद से युवान सहचरी जो मयुरी उस की साथ नृत्य करते होवे, नविन सुगंधवाले, 'छत्र
भावार्थ
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ 48 अनुवादक:बालब्रह्मचारी
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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