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4+ज्ञः तःधर्मकथा का प्रथम श्र
तवसा अणं भावे माणीओ विहरति ॥ २७ ॥ ततेणं तासि सुव्त्रयाणं अज्ञाणं एगे संघ ए मा परिसीए सज्झायं करेइ २ता जात्र अडमाणीओ तयलिस्म गेहं अणु - ति ॥ २८ ॥ ततेणं सा पहिला ताओ अजाओ एजमाणीओ पापात २त्ता हट्ठ डा अमणात! अब्भुट्ठेति २ ता बंद २ चा, त्रिपुलं असणं ४ पाडलाभ पडिला मित्ता एवं त्रयामी - एवं खलु अह अज.अ.! तेयलिपुत्तस्स अमञ्चस्स पुर्देव इट्ठा५ आसि; इयणिं अणिट्ठा५, जात्र दंसणंवा परिभागा ॥ तं तुम्मेण अज्जाओ ! बहु बहुसिक्खियाओ बहुडियाओ तुम्मे बहूनि गामागर जावं आहिंडेड बहु
आत्माको भती हुई विचरने लगी ||२७|| उस सुत्र । भार्या का एक संघाने प्रथम प्रहर में साध्याय शहर में नव तीसरे प्रहर में गौचरी के लिय परिभ्रमण करते हुए तेसलीके गृह में प्रवेश किया ||२८|| उन अर्या को आते हुये देखकर पोहित्रा इष्ट तुष्ट हुई. अपने त्रिपुत्र अशनादि देकर ऐसा बोलने लगी अहो इष्ट थी. अब मैं अनिष्ट होगई हूं जिस में मुझे देखना व मेरी
आमनसे उठकर वंदना नमस्कार किया. आओ! पाहजे में की पुत्र का साथ भोग मंगना भी नहीं चाहत: है. }
अहो वार्याओ ! तु बहुत पढी हुई व पंडिता हो, तुमने बहुत ग्राम यावत् परिभ्रमण किया होगा, और
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तेलीपुत्र का चउदावा अध्ययन
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