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तिकटुणो आढाति नो परियाणाइ मो अम्मुडेति नो पञ्जु मसति ॥ १३५ ॥ ततेणं तरस कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अम्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपजित्था-अहोणं दोवतीदेवी रूवेणय जाव लावण्णेणय पंचहिं पंडवेहिं अवट्ठा ६३७ समाणी मम णो आढाति जाब नो पज्जुवासंति ॥ तं सेयं खलु ममं दोवती देवीए विप्पियं करित्तए त्तिकटु, एव संपेहेति २त्ता पंडुरायं आपुच्छिइ २त्ता उप्पयणियविनं आवाहेति ताए उक्किट्ठाए जाव विजाहरगईए लवणसमुदं मझमझेणं पुरच्छाभिमुहे वितीवतिओ पयत्तेयावि होत्था ॥ १३६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं धायतिसंडे
दीवे पुरथिमड दाहिणड्ड भरहवासे अमरकंका गाम रायहाणी होत्था ॥ तत्थणं आसन से उठी नहीं वैसे ही उन की पर्युपासना मी की.नहीं ॥१३॥ कच्छुल नारद को यह देखकर ऐमा अध्यवसायहुवा कि अहो द्रौपदीराणी रूप, यौवन, लावण्य व पांच पांडवोंकी पालकी पत्नी होने से गर्विष्ट । बनी हुई है. इस से यह मुझे आदर नहीं देती है यावत् मेरी पर्युपासना नहीं करती है. इस से द्रौपदी पर *
किसी प्रकार की विपत्ति डालना चाहिये.. यो विचार कर पाण्डु राना को - पूछकर उत्पातिनि विद्या से है। 17उडकर उत्कृष्ट विद्याधर गति से लवण समुद्र की मध्य बीच में होता हुआ पूर्व दिशा में गया ॥ १३६ ॥
41 षष्टांद्रज्ञाताधमेकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध
द्रपदी का सोलहवा अध्ययन 48MP
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