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________________ ... 491ष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 42 खाइमं साइमं उवक्खडेति, बहुणं समण माहण अतिहि किवण वणीमयाणं, परिभाएमाणा २ विहरति ॥ १७ ॥ ततेणं ते गंद मणियार पञ्चथिमिल्ले. वणसंडे एग महं तमिच्छियसालं कारावेति, अणेगखंभसयसनिविट्ठ जाव पडिरूव ॥ तत्थणं बहवे विजाय वेजपुत्ताय, जाणुगाय जाणुपुत्साय, कुसलाय कमलपुसाय, दिनभइ भत्तवेयणा बहूणं बाहियाणष गिलाणाणय, रोगियाणय दुबलाणय तेइच्छकम्म करेमाणा विहरति अण्णेय एत्य बहवे पुरिता एतेसिं बहूणं बाहियाणप रोगि गिलाणय दुबलाणय उसह भेसज्ज भत्तपाणेणं पडिचारं करेमाणा विहरंति पुरुषों (रसे इये) अशनादि बनाने के लिये रखे थे. और उसमें से बहुत पण,माण,अतिथि,कृषण व भिखारी को अशनादि देते हुवे विचरसे थे ॥ १७ ॥ नंद मणि आर श्रष्टिने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक चिकित्सा करने की शाला बनवाइ. वह अनेक स्तंभवाली यावत् प्रतिरूप थी. उस में बहुत वैद्य वैद्य पुत्र, ज्ञायक-गंगों के शास्त्र को अध्ययन किय सिवाय जाननेवाले, ज्ञायक पुत्रों, चिकित्सा में कुशल * पुरुषों, व कुशल पुत्रों वतन लेकर रोगी ग्लानि च दुर्बल पुरुषों की चिकित्सा करते हुए विचरते थे. इन सिवा अन्य बहुत पुरुषों रागी, ग्लानि व दुर्वल पुरुषों की सेवा करते हुवे विवरते थे. ॥ १८ ॥ पुष्करणी 480 दमाणियार श्रेष्ट का नरहवा अध्ययन 498 " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600253
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages802
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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