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षष्ट अवताधर्मक्रया का प्रथम श्रुतम्घ
मम तेपालि अक्खए पडिनिन्जाएसि ॥ तएणं सा उझिपा एयटुं धगरस पड़िसुगंति २त्ता जेणेव कुट्ठागारं तणेव उवागच्छइ २त्ता पल्लातो पंचकालअक्खए गाहइ २त्ता जे गेव धरणेस वाहे तेणेव उवागलइ२त्ता धन्न मत्थाहं एवं वयासी एएतता पंचताली अक्खर तिव धण्णरस हत्थंसि ते पंचवालि अस्खए दलयति ॥ ततेणं धंग उम्झियं संबहसाविध करेइ २ ला एवं वयोसी किण्णं पुत्तः !तंचे। पंचपालि अक्खए उदाहु अन्ने?ततेणं सा उज्झिया धणं सत्यवाह एवं क्याली एवं खल तुम्भे लातोइतो अतीत पंचमे संपच्छर इमरस मिसणाति च उण्हय कल जाव विहरामि ॥लतेणं अहं
तुब्भ एयमटुं पडि पुणेमि ते पंचनालिअक्खए गण्हलि २ एगंत नवकमागि, ततेणं ऐना वचन सुनकर कोष्ट गारशाला की पास गई और उन में से पांच अखंडत शाली के दाने लहर धना सार्थवाह की पास अई धन्ना मार्थवार को ऐसा बोली यह पांच अखंडेत शाल के दाने लो. यों कहकर पांचों दाने उन की हाथ में रख. धन्ना सार्थवाहने उझयाको शपय साग, देकर एमारहा कि अहो पु मो मैंने शालि के दान दिये थे वही यह है कि अन्य है ? तम यह उ उझया धना सार्थवाह से इस प्रकार आली कि अहो नात! आपने आज पांचवे वर्ष में इन मित्र ज्ञानिचारवधूत्रो व कुरघर वर्ग की। मन्मुख मुझे पाय शालि के अखंडन दाने दिये थे. मैंने भाप के वचन सूने और इन को एकांत में लेन
सोहणी का सातवा अध्ययन
अर्थ
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