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सूत्र
अर्थ
अनुवादक - अलब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ि
मम इमेारू अज्झत्थिए जात्र समुप्पज्जेत्या, एवं खलु ताओणं कोट्ठागारंसि जाव सकम संजुत्ता, तं नो खलु तातो तचेत्र पंचसालि अक्खए, एएण अन्ने ॥ १७ ॥ ततेणं से धणे सत्थवाहे उज्झितियाते अतिए एयमट्ठे संच्च निमम्म असुरते जाब मिि मिसेमाणा उज्झतियं तस्स मिणाति चउन्हंया सुण्हाणं कुलघरस्वपुरतो तस्स कुलघरस्स छरुझियंच छापाज्झियंच कयवरु उझयंच, संपुछियंच, संमज्झियंच, पाओवदाइयच हाणोद तिथंच बाहिर पेसण कारियंच ठावेइ ॥ १८ ॥ एवमेव समजाउसो !
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कर ऐसा विचार किया की अपने कोष्ट गार में बहुत पल्लों चावल रहे हैं. उस में से देऊंगी और कोष्टागार में से लाकर यह दिये हैं इसने अहां तात! आपने दिये हुवे शाली के दाने यह नहीं हैं परंतु दूसर हैं. ॥ १७ ॥ उज्झना के मुख ऐसा सुकर धन्ना सार्थवाद आसुरक्त यावत् मिममिसायमान हुई और मित्र, इति चार वधूओं व कूलघर वर्ग की सन्मुख उज्झिना को राख डालने के गोवर थोपने का चराड लने का अर्थात् घर का झाडु नीकाल ने का वगैरह स्वच्छ करने का प्रातःकाल में घर में पानी का छिडक व करने के, घर के बाहिर याअंदर लिंपने तने के, घर के मनुष्यों को स्नान करने के लिये पानी देने के कार्य में और इन सिवाय घरके बहिर का लाने का पहुंचाने का वगैरह जो कार्य दास दासि से किया जाता है उस कार्य में उज्झिता को स्थपितकी ॥ १८ ॥ अब सुधन स्वामी कहते हैं कि अहो आयुष्यन्त श्रमणो! जैसे उज्झिना शाली के पांच
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• प्रकाशक- राजा बहादुर चाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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