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सूत्र
अर्थ
की षष्टाङ्ग ज्ञात धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488+
जो अम्हे निग्गंथोत्रा निग्गंथीवा जाव पव्वतिए पंचय से महन्वयाति उज्झियाइं भवति, सेणं इह भवचेत्र बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाण बहुणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुवरिअस्सइ, जहासाउज्झि ॥ ॥ १९ ॥ एवं भोगवलियात्रि णवरं तस्स कुलघरस्स कंडेतियंच कुट्टितियंच, पीसणियंच एवं रूधतियंच रंधतियंच परिवेस तिथंच परिभाय तिथंच अग्भितरियच पेसणकारं महाणनिणं वेति २ | २० | एवामे समाउ मो! जो अम्हे समगोत्रा ( दाने डालने से हलिना निंदा को प्राप्त हुइ यावत् नीच कार्य करना पडा बेले ही हमारे साधु साध्वी पांच महत्व अंगीकार करके प्रपद वश से उसे डालदेंगे तो वे इस भव में बहुत माधु साधी, श्रवक व ( श्राविका में हीना निंदा को प्राप्त होंगें यावत् चतुर्गतिक अनंत संमार में परिभ्रमण करेंगे ॥ १९ ॥ जैसे उज्झना का कहा वैसे ही भोगवती का जानना. जिस में इतना विशेष कि वह पांचों दानों को छोल कर निगल गई थी इस से उस को ख न पान प्रिय जानकर उसे मित्र, ज्ञाति, व उनके मात पिता मन्मुख तंदूलादि को कवल में कूटने का गेहूं आदि घट्टां में पीसने का, गृह कुटुंब के लिये रमोइ बनाने का सक्रांत आदि पर्वो में खांड ख जे पमुख पकान्न बनाकर उस का कुटुंब में विभाग करने का, રોફ भाजन धोने का और इस शिवा अन्य गृह के अंदर के कार्य जो दाम दासी करते हैं उस कार्य में उने (स्थापित की. ॥ २० ॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि अहो आयुष्यवंत श्रमणो ! जैसे शाली के पांव दाने
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१०+ रोहिणी का सातवा अध्ययन 448+
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