________________
+
-
43 षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतान्ध
उगाहति पुक्खरिणि उगाहित्ता जलमजणं करति, जलमंजण करता जाव फरकुतरति पुढविसिलापट्टयांसि निमीयंति निसीयत्ता, आसत्यावीमत्था सहासण वरगया गानयरं अम्मापिउगं आपुच्छणं च लवणसमुहोतारंच कालिपवाय समुच्छंणच पोयवहण विवत्तिंच फालयखंड आसायणं रयणुदीवुत्तारचं अणुचितेमाणा २: ओहयमणसंकप्पा जाव ज्झियायति ॥ १५ ॥ ततेणं सा रयणदीव देवया तं मागदिय दारगं आहिणा. आभोएइ २ त्ता अमिफलगवग्नहत्था सणवहवडा सत्तटुतालप्पमाणं उर्दू बेहासं उपयति २त्ता साए उकिट्ठाए जाव देवगतीए वीईवयमाणी २ जेणेव मागंदिय दारए.... मजा किया, और वहां से बाहिर आकर पृथ्वी शिलापट्ट पर बैठे, वहाँ स्वस्थ हुए, विश्रानि ली, फार वहां मुघ से बैठ हो चंपा नगरी की, मातपिता को पूछने की, लमण समुद्र में बाहनामह - होने की.
काल में गर्जना व विधुत होने की, जबाम दूसने की, काट का पटेगा पहने की, और रई में
आकर रहने की सब बीनक वार्ता का चिन्तयन करते हुने, चित्त में बनेक प्रकार के मंत्र विकल्प *करते हुवे यावत् आर्तध्यान करने लगे ॥ १५ ॥ अब रत्नद्वीप देवीने अभ.प शान से इन दोनों पुओं को
अपने द्वीप में आया हुवा देखकर हाथ में खद धारण करके, पख्तर पहिन कर सास आर बाल वृक्ष
मिनरक्ष जिनपाल का नववा अध्यष48+
।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org