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सन
अर्थ
पज्ञ ताकथा का प्रथम स्कंध ११०
आसणणं उवणिमतेति ॥ ततेणं से कच्छुल्लनारए उदयपरिफोसियाए दब्भाव रिपच्चुत्थ याते भिपियाए जिसीयइ जाव कुमलोदतं आपुच्छति ॥ १४० ॥ तन ने प मान रायगउरोहे जात्र विम्झिएकच्छुल्लणारयं एवं वयापी-तुनं देत्राणुनिया ! बहुगामाणि जाब गिहातिं अणुष्पविससितं अस्थिया तं ते कर्हि देवाणु विषाए एरिस उरांहे दिट्टपुत्रे जारिसएणं ममउरोहे ? ततेणं से कच्छुल्लन र परमेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणा इसिं विहसियं करेति २ ता एवं वयासी - सरिलेणं तुम
उपस्थित हुदा यावत् उन को आसन पर बैठने का कहा. कुच्छुल नारदने जल का टिकाव किया ( यावत् महामून ला आसन पर निमंत्रणा की. उस पर बैठकर सबका कुशल क्षेम पूछा ||| १४० ॥ यहां पद्मनाभ राजाने अपने अंतःपुर रूप यौवन लावता में विस्तवा कच्छु नर को एरा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने बहुत ग्राम नगर व है तो जैसे मेरा खियका समुदाय है वैसा समुदाय तुमने किसी स्थान क्या देखा है
गृह प्रवेश किया किंचित् स्मित
कर वाले अटा पद्मनाभ राजा ! तुम अगड़ के दर्दर जैसे हो. पद्मनाभने पूछा अहादेवानुमेय अगड दर का दृष्टांत कैसे है ? अगंड दर्दुर का दृष्टान्त जैसे मल्लिनाथ के अध्ययन में कहा वह सब यहां जानना.
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4984 ट्रैपदी का सोना अध्ययन
2015
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