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षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 43
अणगारे तेणेव उवागच्छइ २त्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति २ सागमणागमणस्स पडिक्क.... मति २ ता. एसणमणेसणं आलोएड्रत्ता भत्तपाणं पडिदसति २ त्ता -एव वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! जाव कालगते. तं सेयं खल अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुजगहिय भत्तपाणं परिहावेत्ता सेत्तुज पन्वय सणियं २ दुरुहित्तए सलेहणाए झोसियाए झोतियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए तिकटु, अण्णमण्णस्त एयम पडिसुणति २त्ता तं पुधगाहियं भत्तपाणं एगत पस्ट्रिवेति २ ता जेणेव सेत्तुज
फवए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सेत्तुजं फवयं सणिय सणियं दुरुहति २ ता वहाँ भक्तपान का प्रत्याख्यान किया, गमनागमन का प्रतिक्रमण किया. एषणा समिति की आलोचना की, और भक्तपान बतलाये. फीर ऐमा बोले अहो देवानुप्रिय ! हम • आपकी अनुज्ञानुसार मामक्षमण के पारने के लिये ऊंच नीच व मध्य कुल में गोचरी करते हुवे यावत् परिभ्रमण करत थे. वहां हमने ऐमा
सुना है कि श्री अरिहंत अरिष्ट नेमी एक मास पर्यंत भक्तपान रहितं यावत् कालधर्म को प्रश्न * यावत् सब दुःखों स रहित हुए. इस से हो ईवानुप्रिय ! अपने को-यह ग्रहण किया हुवा आहार को
परिठाना और शत्रुजय पर्वत पर शनैः चमकर संलेषणा ग्रोसणा करके काल की वांच्छा नहीं करते हवे ।। विचरना. श्रेष्ठ है. सबने इस बात को खोकार की. लाये हुवे आहार को परिठाया और शबूंजय
द्रोपदी का सोलहा अध्ययन
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