________________
4
अर्थ
षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रनर
जत्ताविमे, जवणिजंपिमे, अवाबाहंपिमे, फायनिहारंपिभे ॥ ततेणं से पुए थावच्चा पुत्तं एवं वयासी से किंते भंते ! जत्ता ? य! जणं मम न ण दसण चरित्त तवसंजममाइएहिं जोएहिं जयणा से जत्ता ॥ सेकित भंते ! जणिज्जं ? सया ! जबणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तजहा-इंदिय जाणिजेय णो इंदिय जवाणिजय ॥ सेकिंतं इंदियजवाणिज्ज ? सुया ! जण्णं ममं सोतइंदिय चक्खुइंदिय घाणिदिय, जिभिदिय, फासिदिए तं निरुवहयाति वासे वहृति, सेतं इंदियजवणिज्जे । सेकिंतं नो इदय
जवणिजे ? सुया ! जणं कोहं मागं माया लोभे खीणा उवसंता नो से उदयंति, था अनगार को शुक परिव्राजकने पुनः प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! तुम्हारे मत में यात्रा किसे कति ? अहो शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयपादि में यत्न करना वही हमारे मत में यात्रा है. अहा भगरन् ! आपके पत में यज्ञ किस तरह है ? अहो शुभ ! हमारे मत में यज्ञ के दो भेद कहे हैं तयथा-१ इन्द्रिय का यश और २ नोइन्द्रिय का यज्ञ. इस में से इन्द्रिय यन्झ किसे कहते हैं? अहो । शुक ! श्रोत्रन्द्रिय, चाइन्ट्रिय, प्रणेन्द्रिय, रमनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय. ये पांचों इन्द्रियों निरुपहत किमी
प्रकार के उपद्रव रहित प्रार्ते, उन्मार्ग में जावे नहीं सो इन्द्रिय का यज्ञ हमारे मत में कहा है. नोइन्द्रिय जिसे कहते हैं ? अहो. शुरु ! क्रोध, मान, भाया । लोभ वे उपशम भाव में होवे व उदय
लग राजर्ष का पांचवा अध्ययन 4.98+
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org