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अर्थ
अनुवादक- बाळब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋ
से तं नोइदियजयणिजे ॥ सर्कितं भंते! अव्वावाह ? सुया ! जं ण्णं मम वालिय वित्तिय संभिय संन्निवाइय विविहारोगायका नो उदीरैति सेत अवाबाहं ॥ सेतिं भंते! फायविहारं ? सुया ! जणं आरामेसु, उज्जाणेसु, देवकुलेस, सभासु पन्त्रासु इत्थि सुडगवज्जियासु वसही पाडिहारियं पीढ फलग सेज्जा संथारयं उगिहताणं विरामि, सेतं फ. सुयं विहारं ॥ ४८ ॥ सरिसवा ते भंते ! किं भक्खया अभक्खेया ? सुया ! सरिसवया भक्वेयात्रि अभक्खयात्रि ? से केणटुणं भंते ! एवं वृच्चइ सरिसवया भक्वेयावि अभक्वेयात्रि ? सुया ! सरिसवया दुबिहा पण्णत्ता भाव में नहीं आये हुवे होवे मो नोइन्द्रिय का यज्ञ है. अहो भगवन् ! आपके मत में अव्यावाध किसे कहते हैं ? अहो शुक ! जो वात, पित्त, कफ, श्लेष्म व सन्निपातादि विविध प्रकार के रोगों उदय में नहीं आये हुये होवे उन को अव्यावाध कहते हैं. अहो भगवन् ! आपके मत में फ्रायुक बिहार किसे कहते हैं ? अहो बुक ! आराम, उद्यान, देवालय, सभा, पानी पीने की पो [प्रपा] अथवा स्त्री, पशु, पंडग रहित वसति में पाडियारा (ले आये पीछ दे ऐसा ) पटिये बाजोद, शैय्या व थरा ग्रहणकर विचार है यह हमारा फासुकं बिहार है ॥ ४८ ॥ अहो भगवन् ! आपके मत में सरिसब क्या मक्ष्य हैं या अभक्ष्य है ? भो
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• प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाळाप्रसादजी ०
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