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++ षष्टांग ज्ञानाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्वन्ध 481
जाणासि तिकटु, जामेवदिमि पाउन्भूयए तामेघदिसिं पडिगए ॥ १४५ ॥ तएणं सा दोक्तदेवी ततो मुहुत्तरस्स पडिबहासमाणी तं भवणं असोगवणियंच अपच्चभिजाण मागी एवं वयामी-नो खल अम्हं एम सएभवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगणिया, तं ण जतिणं अहं केणइ देवेणवा दाणवणवा किन्नरेणवा किंपुरिमणवा महोरंगणा गंधव्वणवा अन्नरस रन्नो असोगवणियं साहरिय त्तिकटु, ओहय मणसंकप्पा जाब झियायति ॥ १४६ ॥ ततेणं से पउमगाभेराया ण्हाए जाव सन्धालंकार विभूलिए अंतउर परियालसद्धिं परिवुडे जेणेव अप्लोगवाणिया जेणव दोवती देवी
तेगव उपागच्छइ २ त्ता दोवती देवी उहय जाव झियायमाणि पासति, पासत्ता Eरा कर्म तू जान. यों कहकर अपो स्थान एल गया ॥ १४५ ॥ थोडे समय में द्रौपदी देवी ज ग्रन हुई
और उन भान को व अशोक व टिका को अपनीत कारी जानकर मन में ऐसा बोलने लगी कि यह मेरा भान व मेगे अशोक वाटिका नहीं है. न मला किती दव, दानव, विमा, पुरुष, महोग, या गंर्धा किसी राजाकी अशोक वाटिका में मरा मदर किया है. यों पनमें संकल्प विकला करती हुई य बन
आत ध्यान करने लगी ॥१४६ ॥ तब पद्मनाभ सजने स्नान किया यावत् सब अलंकार से विभूषित बिनकर अंतःपुर के परिवार की साथ परिवरा हुवा अशोक वाटिका में द्रौपदी देवी की पास बाया.
द्रोपदी का मालहवा अध्ययन 4280
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