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षष्टज्ञाताधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 44
परिणायगे जाव कुंडगेयावि होत्था, सेणं तत्थ सोहगुहाए चौरपीए पंचण्हं चोरसयाणय एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स णयरस्स साहिण पुरथिमिल्नं जणवयं जाव णिस्थाणं गिद्धणं करेमाणे विहरति ॥ २० ॥ सतेणं से चिलाए चोरसेणावती अन्नयाकयाइ. विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ २त्ता ते पंचचोरसए आमंतेइ, तओ पछा. हाए कपबलिकम्मे भायणमंडवंसि तेहिं पंचहि चोरसएहिं सहिं
विउलं असणं. पाणं खाइमं साइमं सुरंच जाव पसण्णच आसाएमाणे ४ विहरति, वह चिलात चोर सेनापति चोरों का मालक यावत् मव अधयों को बाधार भून था. अब वह चिलात चोर सेनापति सिंहगुफा नायक बोरपल्ली में पांचसो चोरों का मालिक बनकर वगैरस विजय चोर जैसे मानना यावत् राजगृह के अग्निकून के देश में यावत् जंगल करता हुवा विचरता था. ॥ २० ॥ एकदा. चिलात चोर सेनापतिने विपुल अशन, पान, स्वादिम व स्वादिन बनाकर पांचसो पोरोंको आफ्ण दिया, तत्पश्चात स्नान कर वाले कर्म कर भोजन मंडप में उन पांचसो चोरों की साथ विपुल अशनादिसुरा यावत् प्रसन्न जातिका सुराका पास्वादन करना यह विचरता था जिमकर शूचिभूत हुने पीछे पांचसो चोरों को त्रिपुरा ।।
40+ सुषुपा दारीका का अठारहवा अध्ययन
अर्थ
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