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महासुमिणस्स तिपई मासाणं बहुपडैिपुण्णाणं अयमेयासवे अकाले मेहेसडोहल पाउब्भूए-धप्णाओणंताओअम्मयाओ कयत्थओणंताओअम्मयाओ जाव वेभारगिरि पायमूलं आहिंडमाणीओ दोहलंविणिइ, तं जइणं अहमवि दोहलं विणिज्जामि, तेणाहं सामी! अयमेयरूवंसि अकालेसि अविणिजमाणसि ओलग्ग जाव अज्झाणोवगए ज्झियाइ ॥४१॥ तएणं से सेणिएराया धारिणीदेवीए अंतिए एयम, सोच्चा जिसम्म धारिणीएदेवीं एवं यासी-माणं तुम देवाणुप्पिए! उलुग्गा जाव झियाहि, अहणं तहा करिस्सामि जहाणं तुमं अयमेयारूवस्स अकाल दोहलस्स मणोरहसंपत्ति भविस्सइति
कहु. धारणीदेवी इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणामाहिं वग्गृहि समासासेइरजेणेव बाहिरिए बोली अहो स्वामिन : मेरे उस उदार यावत महास्थान के तीन मास पूर्ण हए सने ऐसा अकाल मेघ का दोहला हुवा है कि-धन्य है उस माता को, कृतार्थ है वह माता यावत् वेभारगिरि पर्वत के पास में फीरती. हुइ वियती है इस से मैं भी वैसा दीहला पूर्ण करूं. अहो स्वामिन् ! ऐमा अकाल मेघ का दाहल संपूर्ण नहीं होता देख आर्तध्यान करती हूं ॥४॥ अब धारणी देवी की पास मे ऐसा सुनकर श्रेणिक राजाई
ऐमा बोला अहो देवानुप्रिय ! तू आतध्यान करता नहीं. तेरा अकाल मेघका होहल संपूर्ण होवेगा वैसा है 12मैं करूंगा. यों कहकर धारणी देवी को इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ व मणाभ वचनों से आश्वासन देकर
१० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ
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