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पाहाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 48
से धण्णेसत्थवाहे धम्मं सोचा, पव्वइया, एक्कारसंगविऊ, मासियाए संलेहणाए जाव कालं मासे कालंकिच्चा सौहम्मेकप्पे देवत्ताए उववष्णे, ताओ देवलोगाओ महाविदेह वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं करिहिति ॥ ४. ॥ जहवियणं जंबु ! धण्णसत्थबाहे जो वण्णहऊंगा, णो रूवहेउवा, णो बलहेउवा, णो विसयहेउवा, सुसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, णणत्थ एगाए रायगिई संपावणट्टयाए ॥ एबामेव समणाउसो! अम्ह जिग्गंथोत्रा णिग्गंथिबा इमरस ओरालिय सरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवरस सुक्कासवस्स सोणियासवरस जाव अबस्सविप्पजहियस्स णो वष्णहेउवा जो
रूबहेउवा,णो बलहेउवा, जो विसयहेउवा आहारं आहारेति, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणं प्रवजित हुए. अग्यारह अंग के ज्ञाता दुए. एक मास की संलेखना से यावत् काल के अवसर में काल करके सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुए. वहां से चक्कर महाविदेह क्षेत्र में सीगे बुझेंगे यावत् सब दुःबों का अंत करेंगे ॥ ४०॥ अहो जम्मू ! जैसे धना सार्थवाहने शरीर वर्ण, रूप, बल व विषय के लिये सुषुमा कन्या का मांस व रूधिर का आहार नहीं किया था परंतु मात्र राजगृह नगर में प्राप्त होने के लिये उस का आहार किया था बसे ही अहो आयुष्मन्त अपणों! जो कोई साधु साधी वंताश्रव पित्ताश्रम, शुक्राश्रा, श्राणिताश्रम, यावत् अवश्य स्थाजनीय उदारिक शरीर को वर्ण, रुप, चल व विषय के
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सुषुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 48+
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