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मक पष्ठाता धर्मकश्या का प्रथम अतस्कंध 42
पया ! मापडिबंधं करेहि ॥ ४२ ॥ ततण कुमएराया कोडुबियपुरिसे सद्दावति २त्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव अट्रमहरुमं जाव भोमेजाणंति अण्णंच जाव महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उबट्टवेह जात्र उवटावेति ॥ १४३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चय पजवसाणा आगया ॥१४४॥ ततेणं सक्के अभिओगिए देवे सदावेद २ चा एवं वयासी- खिप्पामेव असहस्सं सोवणियाणं कलसाणं जाव
अनंच तं विउले उवट्ठवेह, जाव उबटाति ॥ तेविकलला तंचंत्र कलसेसु अणुपविट्ठा बिलम्ब मत करो, ऐसा मातपिताने उत्तर दिया ॥ १५२ ॥ फीर कुंभ राजा कौटुम्बक पुरुषों को बोला- कर यों कहने लगे कि अहो देवानु प्रिय ! सोने को यावत् मिट्टी के १००८ कलश बनाको यावत् महा अर्थवाला तीर्थंकर का अभिषेक करो. कौटुबिक पुष्टपोंने वैसा ही किया ॥ १.४३ ॥ उस काल उस समय में अमरेन्द्र से अच्युतन्द्र पर्यंत चौसठ इन्द्रवीरकर का दीक्षा का उत्सव करने के आये ॥१.४४॥ शक्वेन्द्र देवने आभियोगी दवों को बोलाकर कहा कि अहो देवानुप्रिय ! एक हजार पर्ण के कलश यावत् और भी अन्य सब वस्तुओं सहित शीघ्रमेव दीक्षा उत्सव की स्थापना करों यावत् मे ही किया. और देवकृत कलशों को मनुष्य कृत कर शों में रखे. ॥ १४५ ॥ शक्रेन्द्र देव राजा व कुंभ सनाने पल्ली अरिहंत को सिंहासनपर पूर्वाभिमुख बैठ ये. और एकहजार आठ सुवर्ण कलश यातू १०.८॥
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श्री. मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4120
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