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शुक्र
* अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल ऋषि
जंभगा जाव जेणेव महिलारायहाणि जेवेत्र
कुंभगस्रन्नोभवणे, जेणेव
मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छइ २त्ता अंतलिक्खपडित्रन्नो सखिखणियाइ जात्र वत्थाई पवरपरिहिया करयल ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं वयासी "बुज्झाहि भगवं लोगनाहा पवत्तं हि धम्मतित्थं, जीवाणं हिय सुहं निसेस्सेयसकरंच्च भविस्सइ तिकहु” दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-मल्ली अरहं वंदति नम॑सति वंदिता नमसित्ता जामेवदिसिं पाउन्भूया तामेवदितं पडिगया ॥ १४१ ॥ ततेणं मल्लीअरहा तेहिं लोगंतिएहिं दहिं संबाहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल इच्छामिणं अम्मयाओ तुम्भेहिं अब्भणुन्नात्ते समाणे मुंडे भवित्ता; जाव पव्वतित्तए, अहासुहं देवाणुअरिहंत की पास आकर अंतरिक्ष में रहे. घुघरियों घमकाते हुए यावत् श्रेष्ठ वस्त्रों पहिनें हुत्रे लोकान्तिक दवने इष्टकारी कन्तिकारी भिंय यावत् प्रणाम शब्दों से ऐसा बोले अहो लोकनाथ ! दुझो धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो ! और जीवों को हित, सुख व कल्याण के कर्ता बनो. यों दो तीनबार बोलकर मल्ली अरिहंत को वंदना नमस्कार कर अपने २ स्थान पीछे गये ॥ १४१ ॥ लोकान्तिक देवों से बोधित कराये हुवे मल्लो भरिहंत अपने मातरिता की पास आये और हाथ जोडकर कहा कि आपकी आज्ञा होवे तो मुंडित बनकर दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूं उनोंने उत्तर दिया कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे तुम को मुख होवे वैसा करो.
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• प्रकाशक राजवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसदजी ०
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