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4.पष्टमांग-गावाधर्मकथा का प्रथ- श्रुतस्कम्प
समणाणिग्गंथा राओ पुखरता वरत्तकालसमयांस वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं चणं रत्तिं णोसंचाएमि अक्विणि मिल्लावत्तए ॥ १३४ ॥ तं सेयं खलु ममकलं पाउप्पभाए रयणीए जाव तेयसा जलते समणं भगवं महावीर अपुच्छित्ता पुणरवि आगारमझेवसित्तए त्तिकटु, एवं संपेहेइ २. त्ता अट्ठदुहट्ठवसट्ठमाणसागए गिरए पडिरूवियंचणं तं रयणि खवेइत्ता, कल्लंपाउप्पभाए सबिमलाए रयणीए जाव तेय साजलंते, जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ२ ता तिखुत्तो आया हिणं फ्याहिणं करेइ २ ता वंदइ णमंसइ २ चा जाव पज्जुवासइ ॥ १३५॥ वडीनीत लघुनीत के लिये जाने आने से मैं निद्रा नहीं लेलका हूं ॥ १३४ ॥ इसलिये कल प्रभात में यावत् जाज्वल्यमान सूर्य उदय होते श्रमण भनवन महावीर स्वामीको पूछकर पुनः गृहवास में जाकर रहना मुझे श्रेय है. यों विचार कर आर्तध्यान रूप दुःख से पीडाया हुवा मानसिक दुःख में विकला वश नरक समान दुःखवाली रात्रि पूर्णकर प्रभातमें जाज्वल्यमान सूर्य उदय होते श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी पामआये और उन को तीनवार आवर्त वंदना नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करने लगे ॥ १३५ । उस समय श्री श्रमण मगवंत महावीर स्वामीने मेघकुमार को ऐसा कहा महो मेघ ! आज मध्य राबिवी से अमन ।
उत्क्षिप्त (अपकुमार) का प्रथम अध्ययन
अर्थ/
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