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सूत्र
अर्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अनोलखा
सहस्सातवीतीब २ता, तरणं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयासी- गच्छहणं तुम्मे देवाणु-: पिया ! गंगं महानदि उत्तरेह जाव ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो ॥ ततेां से कह वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिबई दहुणं तंचेक सब्वं णबरं कण्हस्त चिंतानु वुच्चइ ॥ जाव निव्विस आणवेति ॥ १९३ ॥ ततेनं से पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासी-दहुणं तुमं पुत्ता कथं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहिं ॥ १९४ ॥ तरणं से पंडुरायाको सिद्दा बेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! बारावतिं नयरिं कण्हरस वासुदेवरस णिवेदेहि-एवं खलु देवाणुपिया ! तुमं पंच पंडवाणं णिव्वेसियाणं . मिलकर गंगा नदी की पास आये. वहां नावा की गवेषणा की परंतु मिली नहीं, इस से एक हाथ में {अश्व रथ व सारथी लेकर दूसरे हाथ से गंगा नदी तीरने लगे. बीच में थक जाने से कृष्ण वासुदेव डूबने लगे, इम से हमने हास्य किया जिस से हम को देशपार किये हैं | १९३ ॥ तब पांडु राजा पांचों पांडवों को ऐसा कहने लगे कि अहो पुत्र ! तुमने कृष्ण वासुदेव से विपरीत होने का किया सो बहुत खराब किया ॥ १९४ ॥ उस समय पाण्डु राजाने कुंती देवी को बोलाई और कहा कि अहो देवानुप्रिये ! तुम द्वारिका नगरी जाओ और कृष्ण वासुदेव को निवेदन करो कि तुमने पांच पांडवों को देश निकाल किये हैं।
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प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायणी ज्वालाप्रसादजी ०
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