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→ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कृष 44+
आणत्ता तुमं चणं देवाणुप्पिया ! दाहिणड्ड भरहस्स सामी, तं संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! तं पंच पंडवा कयरं देसंघा दिसिंवा गच्छंतु?॥१९५॥ तएणं सा कोंती पंडुणा रण्णा एवं वुत्ता समाणी हथिखंधं दुरुहतिरत्ता जहा हिट्टा जाब संदिसंतुणं पिउत्था किमागमणं पयोयणं ॥ ततेणं . सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं व्यासी-एवं खलु तुमं पुत्ता ! पंचपंडवा णिविसया आणत्ता, तुमंचगं दाहिणड्ड भरह जाव दिसिंवा गच्छंतुवा ? ततेणं से कण्हवासुदेवे कौर्तिदेवि एवं वयासी-अपूइवयणाणं
पिउत्था ! उत्तमं पुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टीवा तं गच्छंतुणं पंचपंडवा दाहिण परंतु आप अर्ध भरत खण्ड के स्वामी हैं, इस से कहो कि वे पांचों पांडव कौनसे देश में जाकर रहें ? ॥ १९५ ॥ पाण्दु राजाकी पाससे ऐसा सुनकर कुंतीदेवी हाथी पर बैठकर द्वारिका नगरीके अंग उद्यान में उतरी. वहां से अपने कौटुम्बिक पुरुषों की साथ अपना आने का समाचार कृष्ण वासुदेन को कहलाया. कृष्ण वासुदेव वहां आये और अपनी भूना को पूछा कि आप का आने का क्या प्रयोजन हुवा ? तब A. कुंती देवी कृष्ण वासुदेव को बोलने लगी हो पुत्र ! तुमने पांचों पांडवों को देश निकालं किये हैं.
और तप दक्षिणार्थ भरत के स्वामी हो. तो कहो कि वे कहां जाकर रहे: ? तक कृष्ण वासुदेवने कुंतीमा * देवी को उत्तर दिया कि भूाजी! वासुदेव बलदेव व चक्रवर्ती, वगैरह उत्तम पुरुषों के वचन: असत्य नहीं।
480 द्रौपदी का सोलहवा मध्ययन W
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