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________________ எ7 + षष्टांड़ ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम सन् पन्नता ? गोयमा ! चारि पलिओमाति ट्ठई पण्णत्ता ॥ ४१ ॥ सेणं ददुग्देवे महाविदेहेवासे सिज्झिहिति बज्झति जान अंत करेहिति ॥ ४२ ॥ एवं खलु जैब ! समगणं भगवया महावीरेण जाव संपतेणं तेरसमस्म णायज्झयणस्स अपमट्टे पणते, तिथे मे ॥ १३ ॥ गाथा-पण गण विजओ, सुमाहु संसग्ग वजिनो; पयं पावइ गुण परिहाणि ददुरज मणियार || १ | अथवा तित्थयर वदत्थं चलिओ भावण पाएलगं ॥ जह दर देणं, पत्तं वेमाणिय सुरतं ॥ २ ॥ तेरसमं णायझवणं सम्मतं ॥ १३ ॥ * # ** Jain Education International देव की चार पल्योपन की स्थिति कही है ॥ ४१ ॥ यह दर देव महाविदेह क्षेत्र में संझेंगे, बुझेंगे यावत् दुःखों का अंत करेंगे ॥ ४२ ॥ अजस्त्र ! श्री भगवन् महावीर स्वामीने ज्ञता सूत्र के तेरह अध्ययन का यह अर्थ कहा है !! १३ ॥ उपसंहार-द मणियार जैन मेंडक में उत्पन्न हुआ वैसे ही संपूर्ण गुणवाले जीवों साधु की मंगने से गुत्र से हीन होते हैं ॥ १ ॥ भव मे तीर्थंकर को ? वंदन करने के लिये निकला हुआ जीवा होस करता है, जैसे दर्दर देवेशनिक त किया ॥ २ ॥ यह तेरा अध्ययन संपूर्ण ॥ ॥ १२ ॥ ० For Personal & Private Use Only मणियार श्रेष्टका तेरहवा अध्ययन ० ५०१ www.jainelibrary.org
SR No.600253
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages802
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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