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गिव्यिमा आगत्ते ॥ ९६ ॥ ततेणं अहीण सत्तुराय वित्तमरं एवं घयासी से करिस एणं देवाणुपए ! तुझे मल्लीर लहाणुरूवे जिम्वेत्तिए ॥ तेण से चितार दरए कक्खतरा तो चित्तफलयं ण ण त अदीण मत्तम उवणेति २ त्ता : यामी-एमण सामी! मल्लर विदेहबर रायकमा तयणरूरत केइ अप व डायारेणीतिए, नो खलु सक्का केणइ देवेणवा गंधणवा दाणवेणवा जाव मल्लीएविदहराय वरकन्नाए तयाणरूणिवत्तितः॥ ९७ ॥ ततेग अदीण मत्तूगय पडिरूवजणियहासे दूयं सहावेइ
२त्ता एवं वयासी-तहव पाहारत्यगमणाए ॥५॥९८॥ तणं कालण तेणं समएणं पंचाले हैं इसका यही कारन है॥६॥ अदीन शत्रु सजाने कहा कि अहो देव नुप्रिय! तैन मल्ली कुवरी का कैस सबसया. ? तर चित्रकारने अपनी कक्षा में से सचित्र का दिया। कल कर रज की सन्मुख *
खा और ला मो ममापिन् ! मल्ली देह राजवर कण के कितनेक आकार मात्र 1 प्रीनगर को हैं ई उ न करने काई देव. वन्य व गंर्धा भी समर्थ नहीं ॥१७॥ अदीन शत्रु र जाने उस के पागनिदेख...
पू न उत्तम हुवा और प्रतिबुद्ध राना जै दूत 16 को वोलाकर कहा यावन दून भा मिथिला नगरी जाने को भी कला. यह पांवचा राजा. का दून. ॥१८॥
अनवादकाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अपालकन) +
• पक शक-गादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालाप्रमादत्री •
अर्थ
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