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बालब्रमचारी मुनि श्री अमेलक ऋषीजी -
'एय सीलबएय णिस्वइयारे ॥ खणलव तवच्चियाए, वेयावच्चे समाहीयं ॥ २ ॥
अपुत्रणाणा गहणे, सुयभत्ती. पवयणेप्पभावणया ॥ एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं । लहइजीवो ॥ ३ ॥ १९॥ ततेणंते महब्बल पामे क्खाण सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरंति ॥ जाव एगरातियं उवसंपजिताणं विहरंति ॥ २० ॥ ततेणं से महव्वल पामोक्खा सत्त अणगार। खुड्डागं सीहणिक्कीलियं तवो
कम्मं उवसंपजिनाणं विहरति, तंजहा-चउत्थं करेति २ चा सव्वकामगुणियं पारेति, सदा करने से, १२ शील अर्थात् ब्रह्मचर्य इत्यादि व्रतों का निदोषतया आचरन करने से, १३ सदा निवृति अथा वैग्य भाव रखने से, १४ बाह्य व आभ्यंतर तपश्चर्या करने से, १५. सुपात्र को दान देने से, १६ गुरु, रोगी, तपस्वी व नविनदीक्षित की वैय्याबृत्य करने से, १७ समाधि भाव रखने से, १८ नित्य नय अपूर्ण ज्ञान का अभ्यास करने से, १९ जिनेश्वर की वाणी पर बहुमान पुर्वक श्रद्धा रखने स, और २० जैन धर्म को तनमन व धन से उन्नति करने से. इस तरह बीस स्थानक मे अन्य जीव भी
तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन करते हैं ॥ १९ ॥ महाबल प्रमुख सातों अनगारने एक मास की भिक्षु प्रतिमा ल अंगीकार को यावत् एक रात्रि दिन की यों भिक्षु की बारह प्रतिमा अंगीकार की॥ २० ॥ अब महावल
प्रमुख सो अनगार लघुसिंह क्रीडा तप अंगीकार कर विचरने लगे. इसकी विधि एक उपवास करके सब
प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी.
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